मंगलवार, 5 दिसम्बर 2023 | 01:04 IST
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क्यों नहीं रुक पा रही है मणिपुर की हिंसा ? जिम्मेदार कौन ?


भारत के पूर्वोत्तर का राज्य मणिपुर जल रहा है। राजधानी इंफाल के आसपास थाने फूंके जा रहे हैं, कही से भी गोली आ सकती है- कभी 
मैदानी इलाकों में बसे मैतेई समुदाय के लोगों के घरों पर हमले होते हैं तो कभी पहाड़ों पर बसे नागा समुदाय पर बम गिरते हैं। पुलिस है, अर्धसैनिक बल भी लगे हैं, गृह मंत्री भी दौरा कर चुके हैं, बीजेपी सरकार के सीएम एम.बीरेन सिंह ने अपनी सारी कोशिशें कर लीं, लेकिन हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही। इस हिंसा में अब तक सौ से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं और करीब 60 हजार लोग अपने घरों से पलायन करने को मजबूर हो चुके हैं।  दस हजार लोग घायल बताए जा रहे हैं, दो हजार घरों पर हमले आगजनी हो चुकी है, सैकड़ों मंदिर, चर्चों को तोड़ा गया है। 
आप यूं समझ लीजिए कि इस समय मणिपुर का एक हिस्सा मैतेई लोगों के पास है, दूसरा कुकी लोगों के पास. हिंसा का जिस तरह का मंज़र दिखता है, वो एक दो चार दिन का नहीं, हफ़्तों तक चली हिंसा है, जिसमें घर बर्बाद हो गए हैं, लोग-बाग तबाह हो गए हैं, गांव के गांव उजड़ गए हैं.लोग मणिपुर के हालात को सीरिया जैसा बताने लगे हैं। ये भी आरोप है कि जातीय हिंसा को भड़काने में चीन, म्यांमार और बांग्लादेश से भी साजिशें रची जा रही हैं। विपक्ष अब मोदी सरकार पर निशाना साध रहा है। तो आमतौर पर शांत रहने वाला ये पहाड़ी राज्य आखिर छोटे से मुद्दे के कारण क्यों जलने लगा, आइये इसके पीछे की पूरी कहानी समझते हैं। 
28 लाख 56 हजार की आबादी वाले मणिपुर को 1972 में राज्य का दर्जा मिला।  मणिपुर को देश की 'ऑर्किड बास्केट' भी कहा जाता है। यहाँ ऑर्किड पुष्प की 500 प्रजातियां पाई जाती हैं। समुद्र तल से लगभग 5000 फीट की ऊँचाई पर स्थित शिरोइ पहाड़ियों में एक विशेष प्रकार का पुष्प शिरोइ लिली पाया जाता है। शिरोइ लिली का यह फूल पूरे विश्व में केवल मणिपुर में ही पैदा होता है। राज्य में 16 जिले हैं, जिनमें 60 विधानसभा सीटें हैं, जिसमें से 19 आरक्षित हैं।  मणिपुर में दो लोकसभा और एक राज्यसभा सीट भी है। 2022 में हुए चुनाव में बीजेपी ने 60 में से 32 सीटें जीतकर सरकार बनाई और एम.बीरेन सिंह सीएम हैं। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को केवल पांच सीटें मिलीं थीं, जबकि उससे ज़्यादा नीतीश कुमार की जेडीयू ने 6 सीटें जीत लीं। नागा पीपुल्स फ्रंट को पांच, जबकि नेशनल पीपुल्स पार्टी को 7 सीटें मिलीं थी। देश का तीसरा सबसे गरीब राज्य माने जाने वाले मणिपुर में 37 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। बिजली, परिवहन और संचार की कमी के कारण लोगों को नौकरियां नहीं मिल पातीं। अब बात करते हैं मणिपुर की सामाजिक संरचना की, जिसके पीछे हैं मणिपुर के हिंसा की जड़ें। 
मणिपुर में हिन्दू मैतेई की आबादी 53 फीसदी है और वे राजधानी इंफाल के किनारे बसी घाटियों में ही रहते हैं। ये इलाका कुल जमीन का दस फीसदी माना जाता है। नब्बे फीसदी पहाड़ी भू-भाग पर 
इनको संपत्ति खरीदने पर रोक लगी है। पहाड़ी इलाकों में रहते हैं ईसाई बन चुके कुकी और नगा समुदाय के लोग , जिनकी आबादी 40 प्रतिशत है। ये मणिपुर के कुल क्षेत्रफल के 90 प्रतिशत हिस्से में रहते हैं। हैरानी की बात ये भी है कि मैदानी इलाकों में रहने वाले मैतेई समुदाय के लोग पहाड़ी इलाकों में ज़मीन नहीं खरीद सकते, जबकि पहाड़ों पर रहने वाले कुकी और नगा समुदाय के लोगों पर कहीं भी रहने या ज़मीन खरीदने की कोई बन्दिश नहीं है। यहीं से इस झगड़े और नफरत की बीज पड़ी हुई है, जिसे एक घटना ने और भड़का दिया है। 
दरअसल आज़ादी के बाद से ईसाई धर्म मानने वाले कुकी समुदाय को अनुसूचित जनजाति यानी शिड्यूल ट्राइब का दर्जा मिला हुआ है जबकि मैतई हिंदू समुदाय में कुछ को आरक्षण मिला था, जबकि कुछ अनुसूचित जाति बने और कुछ को ओबीसी का दर्जा मिला था। 
 पहले जानिए विवाद के पीछे की कहानी क्या है? मणिपुर की राजधानी इम्फाल बिल्कुल बीच में है। ये पूरे प्रदेश का 10% हिस्सा है, जिसमें प्रदेश की 57% आबादी रहती है। बाकी चारों तरफ 90% हिस्से में पहाड़ी इलाके हैं, जहां प्रदेश की 42% आबादी रहती है। इम्फाल घाटी वाले इलाके में मैतेई समुदाय की आबादी ज्यादा है। ये ज्यादातर हिंदू होते हैं। मणिपुर की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब 53% है। आंकड़ें देखें तो सूबे के कुल 60 विधायकों में से 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं। मैतेई लोगों के वोटों के दम पर ही बीजेपी ने सरकार बनाई है। 
वहीं, दूसरी ओर पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं। इनमें प्रमुख रूप से नागा और कुकी जनजाति हैं। ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई हैं। इसके अलावा मणिपुर में आठ-आठ प्रतिशत आबादी मुस्लिम और सनमही समुदाय की है। 
भारतीय संविधान के आर्टिकल 371C के तहत मणिपुर की पहाड़ी जनजातियों को विशेष दर्जा और सुविधाएं मिली हुए हैं, जो मैतेई समुदाय को नहीं मिलती। 'लैंड रिफॉर्म एक्ट' की वजह से मैतेई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर बस नहीं हो सकता। जबकि जनजातियों पर पहाड़ी इलाके से घाटी में आकर बसने पर कोई रोक नहीं है। इससे दोनों समुदायों में मतभेद बढ़ गए। 
 अब हिंसा भड़कने के पीछे तीन अहम बातें भी जान लीजिए
पहला बड़ा कारण है  मैतेई समुदाय के एसटी दर्जे का विरोध। 
मैतेई ट्राइब यूनियन पिछले कई सालों से मैतेई समुदाय को आदिवासी दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रही है। मामला मणिपुर हाईकोर्ट पहुंचा। इस पर सुनवाई करते हुए मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से 19 अप्रैल 2022 को 10 साल पुरानी केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सिफारिश पेश करने के लिए कहा था। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के लिए कहा गया है। इस सिफारिश के बाद हाईकोर्ट के द्वारा मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग को स्वीकार कर लिया गया। 
हाईकोर्ट के इसी फैसले के बाद मैती समुदाय निशाने पर आ गया और राज्य में हिंसा भड़क उठी। इस बीच हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है। चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच केस की सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह हाईकोर्ट में लंबित रिजर्वेशन के मुद्दे में नहीं जाएंगे। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है। कोर्ट ने मामले में राज्य सरकार से स्टेटस रिपोर्ट मांगी है। कोर्ट ने पूछा है कि हिंसा के बाद क्या सुरक्षा मुहैया कराई गई? क्या सहायता दी गई है? पुनर्वास के बारे में क्या प्लान है? 
 मणिपुर में हिंसा का दूसका बड़ा कारण है बीजेपी सरकार की अवैध आक्रमण को लेकर कार्रवाई। जैसा आजकल आप सुनते होंगे कि उत्तराखण्ड के जंगलों में अवैध कब्जा करके बनाई गई धार्मिक इमारतों को गिराया जा रहा है। वैसा ही मणिपुर की बीजेपी सरकार ने भी यहां के पहाड़ी इलाकों में करना शुरू किया। मणिपुर सरकार ने जंगलों और वन अभयारण्य में गैरकानूनी तरीके से कब्जा किए लोगों को हटाने के लिए अभियान शुरू किया है।  इस पर 
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह सरकार का कहना है कि आदिवासी समुदाय के लोग संरक्षित जंगलों और वन अभयारण्य में गैरकानूनी कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। ये कब्जे हटाने के लिए सरकार मणिपुर फॉरेस्ट रूल 2021 के तहत फॉरेस्ट लैंड पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए एक अभियान चला रही है। उधर इस एक्शन का विरोध कर रहे आदिवासियों का कहना है कि ये उनकी पैतृक जमीन है। उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया, बल्कि सालों से वहां रहते आ रहे हैं। सरकार के इस अभियान को आदिवासियों ने अपनी पैतृक जमीन से हटाने की तरह पेश किया। जिससे आक्रोश फैला। विरोध तेज हुआ तो सरकार ने इन इलाकों पर धारा-144 लागू कर दी। प्रदर्शन पर रोक लगा दी, लेकिन इसके उलट विरोध प्रदर्शन ने उग्र रूप धारण कर दिया।  
 तीसरा बड़ा कारण बना कि  कुकी विद्रोही संगठनों ने सरकार से 
2008 में किए किए अपने पुराने समझौते को तोड़ दिया। मैतेई लोगों को आरक्षण और पहाड़ों में अतिक्रमण पर कार्रवाई पर भड़के कुकी विद्रोही ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। दरअसल, कुकी जनजाति के कई संगठन 2005 तक सैन्य विद्रोह में शामिल रहे हैं। मनमोहन सिंह सरकार के समय, 2008 में तकरीबन सभी कुकी विद्रोही संगठनों से केंद्र सरकार ने उनके खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोकने के लिए सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन यानी SoS एग्रीमेंट किया।
इसका मकसद राजनीतिक बातचीत को बढ़ावा देना था। तब समय-समय पर इस समझौते का कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा, लेकिन इसी साल 10 मार्च को मणिपुर सरकार कुकी समुदाय के दो संगठनों के लिए इस समझौते से पीछे हट गई। ये संगठन हैं जोमी रेवुलुशनरी आर्मी और कुकी नेशनल आर्मी। ये दोनों संगठन हथियारबंद हैं। हथियारबंद इन संगठनो के लोग भी मणिपुर की हिंसा में शामिल हो गए और सेना और पुलिस पर हमले करने लगे। 
तनाव की शुरुआत राजधानी इंफाल से 63 किलोमीटर दूर चुराचंदपुर जिले से हुई। इस जिले में कुकी आदिवासी ज्यादा रहते हैं। गवर्नमेंट लैंड सर्वे के विरोध में 28 अप्रैल को द इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने चुराचंदपुर में आठ घंटे बंद का ऐलान किया था। देखते ही देखते इस बंद ने हिंसक रूप ले लिया। उसी रात तुइबोंग एरिया में उपद्रवियों ने वन विभाग के ऑफिस को आग के हवाले कर दिया। 27-28 अप्रैल की हिंसा में मुख्य तौर पर पुलिस और कुकी आदिवासी आमने-सामने थे।  इसके ठीक पांचवें दिन यानी तीन मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर ने 'आदिवासी एकता मार्च' निकाला। ये मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के विरोध में था। यहीं से स्थिति काफी बिगड़ गई। जब लगातार हमले और प्रदर्शन होते रहे तो 
फिर मैतेई समुदाय के लोग भी विरोध में उठ खड़े हुए। अब 
लड़ाई के तीन पक्ष हो गए।  एक तरफ मैतेई समुदाय के लोग थे तो दूसरी ओर कुकी और नागा समुदाय के लोग। बीच में पुलिस प्रशासन। देखते ही देखते पूरा प्रदेश इस हिंसा की आग में जलने लगा। म्यांमार के चिन प्रांत से भाग कर आए कुकी उग्रवादियों 
का हिंसा में बड़ा योगदान है। वे अपने साथ बेहद आधुनिक हथियारों 
लेकर आए हैं और पुलिस, अर्धसैनिक बल और मैतेई लोगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। इंफाल के आसपास कहीं से भी गोली चल जाती है। 
अब केन्द्र सरकार ने क्या किया ? हिंसा भड़कने के बाद केंद्र सरकार ने कानून व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। गृहमंत्री अमित शाह ने खुद पांच दिनों तक मणिपुर में रहे।  पूरे सूबे में केंद्र सरकार ने सेना और अर्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया है। कई जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया, जो अब तक जारी है।  पूरे राज्य में इंटरनेट को भी बैन कर दिया गया है। अब तक 60 हजार से ज्यादा लोग पलायन कर चुके हैं। मुख्यमंत्री वीरेन सिंह ने बताया कि अब तक 40 उग्रवादियों को मुठभेड़ में मारा जा चुका है। 
पुलिस, सेना और अद्धसैनिक बलों को भी साफ संदेश है कि अगर कोई हिंसा भड़काने या हिंसा करने की कोशिश करता है तो उसपर सख्त कार्रवाई की जाए। म्यांमार बॉर्डर पर निगरानी बढ़ा दी गई है। यहां से बड़े पैमाने पर हथियार उग्रवादियों तक पहुंचते हैं।
एक्सपर्ट का कहना है कि सरकार सबसे पहले दोनों समुदायों के लोगों का भरोसा बहाल करे और बातचीत का रास्ता निकाले। 
दोनों पक्षों को लग रहा है कि उनके साथ इंसाफ नहीं हो रहा है और चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के कुछ संगठन हथियारों की सप्लाई करके हिंसा को और भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। बॉर्डर पर सख्ती करके इसको रोका जाना जरूरी है। इस बीच दिल्ली में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित कई लोगों ने मोदी सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। देखते हैं कि सरकार इस हिंसा को रोकने के लिए क्या रास्ता निकालती है। 

 



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