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आजादी के संघर्ष में उत्तराखंड का अभिमान संघर्ष और बलिदान


डॉ विनोद बछेती

 भारत के स्वाधीनता के संघर्ष में नवसृजित उत्तराखण्ड के अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राणोत्सर्ग किए तथा स्वाधीनता का विगुल बजाया. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संघर्ष में जहाँ पूरा उत्तरी भारत आजादी की साँस लेने के लिए छटपटा रहा था, उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं रहा. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की सूचना कुमाऊँ के आयुक्त को 22 मई को मिली, जो उस समय गढ़वाल के ऊपरी भाग में  था. सूचना मिलते ही वह नैनीताल लौट आया तथा यहीं से उसने पहाड़ के निचले भाग में शांति व्यवस्था बनाए रखने की तैयारी की. यहाँ उल्लेखनीय है कि मार्च 1839 में बैरन ने नैनीताल को खोजा जो एक सुन्दर पहाड़ी स्थल था, जो बाद में प्रान्तीय सरकार की ग्रीष्म ऋतु की राजधानी बनाया गया. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम सैनिकों से सहानुभूति रखते हुए यहाँ के बंजारों ने रुद्रपुर में सड़कें बंद कर दीं. जून के प्रारम्भ में बरेली तथा मुरादाबाद से अंग्रेज शरणार्थी क्रमशः हल्द्वानी और कालाढुंगी पहुँचे, शीघ्र ही मैदान से यातायात समाप्त हो गया और अंग्रेज अपने को असुरक्षित समझ कर नैनीताल चले गए, कोटाह तहसील की हवेली को रामपुर से आये स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिकों के एक दल ने लूट लिया. इसी समय कोटाह के निचले भाग में स्थित भाभर गाँव में लुटेरों ने लूटमार की. यहाँ के निवासियों की सुरक्षा की प्रवन्ध अंग्रेज नहीं कर पाए, उन्होंने केवल हल्द्वानी के ऊपर छकाता क्षेत्र में ही शांति व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास किया. कृषक पहाड़ों में अपने-अपने घरों में चले गए और भाभर उजड़ गया. जून के अंत में अंग्रेज सेना ने भारतीय अधिकारी, धानसिंह के नेतृत्व में कोटाह में रामपुर से मस्तु खाँ के नेतृत्व में आये स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिकों से युद्ध किया, लेकिन धानसिंह मारे गए और भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों की सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया. मैदान के किनारे स्थित गाँवों में अपने जान-माल की रक्षा हेतु मार्शल लॉ लागू किया. नैनीताल में अंग्रेज शरणार्थियों के लिए उन्हें मासिक भत्ता और अग्रिम धनराशि दी जाती थी, नैनीताल में वह स्थल जहाँ अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को सामूहिक फाँसी दी गई थी. आज भी विद्यमान है, इसे 'फाँसी गधेरा' या 'हैंगमैन वे' कहते हैं. 17 सितम्बर को हल्द्वानी पर स्वतन्त्रता संग्राम सैनिकों ने अधिकार कर लिया, लेकिन अंग्रेजों के सामने टिक नहीं पाए अगले दिन उनको हटना पड़ा. स्वतन्त्रता संग्राम का जोश इतना अधिक था कि 6 अक्टूबर को पुनः आक्रमण करके हल्द्वानी पर कब्जा कर लिया. अंग्रेज उनका सामना नहीं कर सके, लेकिन अंग्रेजों ने स्वतन्त्रता सैनानियों को पकड़कर फाँसी दे दी. हल्द्वानी पर आयुक्त ने नेपाली दल की सहायता से और कुमाऊँ में भर्ती किए गए सैनिकों के साथ एक बार फिर अधिकार कर लिया.

फरवरी 1858 के प्रारम्भ में अतिरिक्त अंग्रजी सेना इस क्षेत्र में आ गई. इसी समय अनुभवी स्वतन्त्रता संग्राम सैनिक फजल हक ने हल्द्वानी के पूर्व में स्थित साण्डा में पड़ाव डाल दिया, जबकि स्वतन्त्रता संग्राम का एक और सैनिक काले खाँ के नेतृत्व में बहेड़ी से प्रस्थान करके हल्द्वानी के दक्षिण में 26 किमी की दूरी पर अंग्रेजों पर आक्रमण करने आया. काले खाँ और अंग्रेजों के बीच चरपुरा में युद्ध हुआ, जिसमें काले खाँ की मृत्यु हुई और भारतीय सैनिक तराई चले गए. अंग्रेजों ने कुमाऊँ के कारागारों से सभी असामाजिक तत्वों को रिहा कर दिया और उनको कुली या सेना में भर्ती किया. अंग्रेजों ने आम जनता के उत्पीड़न में इन बदमाशों को बढ़ावा दिया. मार्च 1816 की सिगौली की संधि के अनुसार गढ़वाल सुदर्शनशाह को दे दिया गया. इस राजा के राज्य का चमोली, गढ़वाल और देहरादून जनपदों को मिलाकर जो शेष भाग था, उसे अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया. 1824 ई. में शिष्टाचार के अनुकूल ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सर्वोच्च सरकार की मुहर लगाकर उसे सनद दे दी गई. सनद की शर्तों के अनुसार टिहरी गढ़वाल के राजा को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा सहायता मॉँगे जाने पर सेना को रसद और राज्य में और राज्य के बाहर के प्रदेशों में अंग्रेजों को व्यापारिक सुविधा प्रदान करनी पड़ी. ब्रिटिश सरकार की अनुमति के बिना वह अपने राज्य के किसी भी भाग का विधटन अथवा गिरवी रखने का कार्य नहीं कर सकता था. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के समय राजा ने सेना और धन सम्पत्ति देकर अंग्रेजों की सहायता की थी. उसने अपने 200 सैनिक राजपुर की पहाड़ी पर इस संग्राम के अंत तक तैयार रखे थे. कहा जाता है कि नजीवाबाद के नवाब ने उससे अंग्रेजों के विरुद्ध मित्रता करने हेतु राजी करने का प्रयास किया था, जिसे सुदर्शनशाह ने अस्वीकार कर दिया और अंग्रेजों के प्रति स्वामि भक्ति प्रदर्शित की. 

19वीं शताब्दी के आरम्भ के दशकों में इस क्षेत्र का इतिहास  शून्य है. केवल कुछ प्रशाससनिक कार्य तथा भू तथा वन-व्यवस्था का कार्य अंग्रेजों ने अपने को इस क्षेत्र में सुदृढ़ वनाए रखने के लिए किए. उनका उद्देश्य यहाँ के प्राकृतिक साधनों का अधिकतम उपयोग अपने हित में करने का था. 15 अक्टूबर, 1891 में नैनीताल जनपद का सूजन किया गया. 1895 में जब प्रेसीडेंसी आर्मी समाप्त करके भारतीय सेना का पुनर्गठन पंजाब, वंगाल, मद्रास और वम्बई चार कमाण्डों में विभाजित हो गया, तो नैनीताल बंगाल कमाण्ड का मुख्यालय वना. 1905 में भारतीय सेना का दुवारा पुनर्गठन करके जब नाद्न, वेस्टर्न और पूर्वी कमाण्ड बनाएगए, तो नैनीताल ईस्टर्न कमाण्ड का मुख्यालय बनाया  गया.

 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराखण्ड के लोग अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक होने लगे थे और उन्हें शासन द्वारा अपने शोषण का आभास होने लगा था. जनता में विरोध की भावना का आभास विभिन्न प्रकार से प्रकट होने लगा था. 1912 में पंजाब के प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता लाजपत राय के आगमन के वाद कुमाऊँ कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ. इसी वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन इलाहावाद में हुआ, जिसमें उत्तराखण्ड का प्रतिनिधित्व हरीराम पाण्डे, वरद्रीदत्त जोशी और सदानन्द सनवाल ने किया, जो कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ता थे.

1916 में, जब पूरे देश में होमरूल आन्दोलन का दौर चल रहा था. उसी समय उत्तराखण्ड के प्रतिष्ठित अधिवक्ता  एवं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी गोविन्द वल्लभ पंत जो आगे चलकर उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री वनने का गौरव हासिल हुआ, ने हरगोविन्द पंत के साथ मिलकर 'कुमाऊँ परिषद्' की स्थापना की. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य नैनीताल, अल्मोड़ा और ब्रिटिश गढ़वाल जिलों के लोगों की आर्थिक, सामाजिक और सरकारी समस्याओं का समाधान करना था. शीघ्र ही कुमाऊँ परिषद्' की शाखाएँ अनेक जिलों में फैलने लगीं. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य कुली बेगार प्रथा को समाप्त करना था, जिसे कुमाऊँ में कुली उतार प्रथा और नैनीताल में कुली 'एजेंसी' कहा जाता था. इस संस्था ने उत्तराखण्ड में सर्व-साधारण को अप्रिय लगने वाला 'वन अधिनियम' का विरोध किया. इस संस्था के सदस्यों में गोविन्द वल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, वद्रीदत्त पाण्डे, डॉ. हरिदत्त पंत, चन्द्रलाल  साह, जयराम साह, राम बहादुर और मथुरा दत्त पाण्डेय थे. 1917 में सम्पन्न हुए प्रथम वार्षिक अधिवेशन में कुमाऊँ परिषद् ने प्रस्ताव जारी किया कि सरकार कुमाऊँ को  अनुसूचित जिला नहीं माने. इसके अतिरिक्त परिषद् ने यह प्रस्ताव किया कि पहाड़ की भौगोलिक स्थिति मैदानी इलाकों से भिन्न होने के कारण अधिक आर्थिक सहायता  प्रदान की जाए. 1918 में प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के लखनऊ अधिवेशन में कुमाऊँ में प्रचलित कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने का प्रस्ताव पारित हुआ पर शासन ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. उसी वर्ष 1918 में 24-25 दिसम्बर को हल्द्वानी में तारादत्त गैरोला की अध्यक्षता में कुमाऊँ परिषद् का दूसरा अधिवेशन हुआ. गोविन्द वर्लभ पंत इसके सचिव थे और इसमें भाग लेने वाले प्रमुख व्यक्तियों में बद्रीदत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, मथुरा दत्त पाण्डेय, इन्द्र लाल साह, भोलादत्त  पाण्डे, डॉ. तुलाराम और प्रेम बल्लभ सम्मिलित थे. अधिवेशन में कुमाऊँ के निवासियों के कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया. इसके अलावा अप्रिय हो चले कुली उतार प्रथा तया वन-व्यवस्था को समाप्त करने की माँग की गई. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् देश में अकाल पड़ा. इसी समय 1919 में ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट नामक काला  कानून पारित किया, जिसमें किसी भी व्यक्ति को संदेह मात्र उत्पन्न होने पर जेल की सलाकों में डाला जा सकता था. इस पारित कानून का विरोध पूरे देश में हुआ. उत्तराखण्ड भी इससे अछूता न रहा. 13 अप्रैल, 1919 में जालियाँवाला बाग में कत्लेआम ने आग में घी डालने का कार्य किया. पूरा हुए क्षेत्र आन्दोलन में जाग उठा. ब्रिटिश सरकार ने एकसमान रूप से आन्दोलन को दवाने का हर कदम उठाया. 1920 में कुमाऊँ परिषद् का वार्षिक अधिवेशन हरगोविन्द पंत की अध्यक्षता में काशीपुर में हुआ जिसमें कुली उतार समाप्त करने हेतु सत्याग्रह प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित हुआ.  अभी तक उत्तराखण्ड में जनआन्दोलन शांतिपूर्वक चलाया ताकि शासन जनता की समस्याओं का समाधान जा रहा था, करे, लेकिन अब इस आन्दोलन ने गम्भीर रूप धारण कर लिया. इसी समय तीन युवा विद्यार्थी लक्ष्ण दत्तभट्ट, आनन्द स्वरूप और शिवनंदन पाण्डेय ने सरकार द्वारा चलाई शिक्षा पद्धति का विरोध कर राजनीतिक चेतना जाग्रत की और आन्दोलन को नई दिशा दी. शीघ्र ही गोविन्द वल्लभ पंत, रामस्वरूप सिन्हा, देवकी नन्दन पाण्डे, रामदत्त पंत, श्याम लाल वर्मा, प्रेम वल्लभ पांडियाल तथा सैकड़ों अन्य नेताओं ने मिलकर आजादी का अलख जगाया. जब महात्मा गांधी ने परे देश में असहयोग आन्दोलन चलाया, तो उत्तराखण्डवासी भी किसी से पीछे नहीं रहे. दिसम्बर 1920 में कोटाह में लगे शनिवार के बाजार में हरदत्त पंत और रामदत्त पंत ने एक विशाल ग्रामीण सभा को इस आन्दोलन में भाग लेने के लिए उत्साहित किया. भीमताल में केशव दत्त संगूरी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाकर इस असहयोग आन्दोलन को पूरे उत्तराखण्ड में फैला दिया. असहयोग आन्दोलन के प्रमुख केन्द्र हल्द्वानी, कालादुंगी, काशीपुर, नैनीताल और पहाड़पानी थे. कुली प्रथा और अप्रिय वन कानून के विरोध में लम्बे काल से चल रहे आन्दोलन भी असहयोग आन्दोलन का भाग बन गए.काफी संख्या में लोगों ने वेगार करने से इनकार कर दिया. कहा .जाता है कि लोगों ने बहुत से वनों को, जिसमें कुछ सुरक्षित थे जला दिया. पूर्णानंद तिवारी (नारायण दत तिवारी के पिता) ने वन विभाग की सरकारी सेवा से त्याग-पत्र देकर सक्रिय रूप से असहयोग आन्दोलन में भाग लिया. कुमाऊँ परिषद् को ब्रिटिश प्रशासन ने अवैध घोषित करते हुए सैकड़ों लोगों को कारागार में डाल दिया. मल्लीताल के किशोरी लाल और गोपाल दत्त को जेल में अनेक यातनाएँ दी गई. महात्मा गांधी के निर्देश पर असहयोग आन्दोलन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया, लेकिन कुली उतार आन्दोलन सफलतापूर्वक चलता रहा. अंततः ब्रिटिश सरकार को विवश होकर इस बेगार प्रया को समाप्त करना पड़ा. 1923 में टनकपुर में कुमाऊँ परिषद् का वार्षिक अधिवेशन वद्रीदत्त पाण्डे की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें निर्णय लिया गया कि इस संस्था को कांग्रेस में मिला दिया जाए. 1924 में गोविन्द वर्लभ पंत प्रान्तीय लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने. इन्होंने काउंसिल में मोतीलाल नेहरू द्वारा स्थापित स्वराज पार्टी का नेतृत्व विरोधी नेता के रूप में किया.1930 में जब महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया, तो अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को सफल बनाया.

 नैनीताल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व गोविन्द बल्लभ पंत ने किया. हल्द्वानी भी इस आन्दोलन का केन्द्र था. ताड़ीखेत और कोटाह के बहुत से स्वयंसेवकों ने इस आन्दोलन में भाग लिया. पुलिस की बर्बर पिटाई में शिरवसिंह गम्भीर रूप से घायल हुए तथा मर गए. शिवसिंह की अंत्येष्टि में उस समय निकला जुलूस नैनीताल में निकाले गए जुलूसों में सबसे बड़ा था. सविनय अवज्ञा आन्दोलन में प्रमुख रूप से दिलीप सिंह 'कप्तान', नारायण दत्त भण्डारी, प्रेम वर्लभ पाण्डियाल, मोतीराम पाण्डेय, शंकर लाल पाण्डेय और गोविन्द राम शर्मा थे , इस सभी नेताओं को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया, गोविन्द वल्लभ पंत को 6 माह का कारावास मिला. उनकी अनुपस्थिति में उनका स्थान सितावर पंत, मोहन लाल साह और मोतीलाल साह ने लिया. 1931 में महात्मा गांधी ने आन्दोलन स्थगित कर दिया. लंदन में जब गोलमेज कान्फ्रेन्स विफल हो गई, तो गांधीजी ने वापस लौटकर सविनय अवज्ञा पुनः शुरू किया, जिसकी बागडोर गोविन्द व्लभ पंत ने सँभाली. हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धा-से कन्धा मिलाकर इस आन्दोलन में भाग लिया. इस आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने प्रथम वार स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया. इनमें प्रमुख कुंती देवी वर्मा और भागीरथी देवी थीं. यह आन्दोलन 1933 तक चलता रहा, जब बद्रीदत्त पाण्डेय और गोविन्द पंत ने व्यक्ति-गत सत्याग्रह करते हुए अपने को गिरफ्तार कराया. 

आजादी की लड़ाई में अविस्मरणीय योगदान करने वाले उत्तराखण्ड के यशस्वी वीर सपूत चन्द्रसिंह गढ़वाली ने पेशावर में 23 अप्रैल, 1930 को जिस सैनिक क्रांति का सूत्रपात किया, वह पेशावर काण्ड आजादी के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है, ब्रिटिश शासक पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश में फौज से भारतीय जनता पर अंधाधुंध गोलियाँ चलवा रहे थे, चूँकि सीमांत प्रदेश के निवासी अधिकांश मुसलमान थे. अतएव साम्राज्यवादियों ने जानवूझकर वहाँ हिन्दू सैनिक भेजे थे, लेकिन देशप्रेम साम्प्रदायिक भावना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली साबित हुआ. अठारहवीं रायल गढ़वाली राइफल्स की दो पलटनों ने चन्द्रसिंह गढ़वाली की अपील पर पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया. वे आन्दोलनकारियों से जा मिले और अपनी राइफलें उन्हें सौंप दीं. देश की स्वाधीनता के लिए हिन्दू सैनिक और पठान मजदूर किसान, दस्तकार मिलकर एक हो गए. ब्रिटिश शासकों ने गढ़वाली सैनिकों को गिरफ्तार कर फौजी अदालत में मामला चलाया और 17 सैनिकों को सख्त सजा दी गई. चन्द्रसिंह गढ़वाली को  आजीवन कालेपानी की, एक अन्य को 15 साल की कड़ी सजा और 15 को 3 से लेकर 10 साल तक की कड़ी सजा दी गई. गढ़वाल के इन सैनिकों पर किस भारतीय को गंर्व नहीं होगा. मोतीलाल नेहरू ने पूरे देश में 'गढ़वाल दिवस' वनाने की घोषणा की थी. ब्रिटिश इण्डिया में चल रहे स्वतन्त्रता संघर्ष के उत्साह और स्फूर्ति ने उत्तराखण्ड के उन लोगों को भी प्रभावित किया, जो इस समय अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे थे और जो राजाओं के शासनकाल में शोषण और अपमान को सहन कर रहे थे. इस राज्य के प्रवासी लोगों ने सन 1939 में गढ़वाल राज्य के राजा के निरंकुश शासन से मुक्ति हेतु देहरादून में प्रजामण्डल नामक संस्था स्थापित की, जिसने नियमित रूप से आन्दोलन चलाया था. इस आन्दोलन के नेताओं में प्रमुख नेता श्रीदेव सुमन पत्रकार थे. इनका जन्म जौन नामक गाँव (पट्टी-वामुदा, परगना नरेन्द्र नगर, तहसील, टिहरी) में हुआ था. राज्य के बाहर रहने वाले इस राज्य के सभी लोगों के कार्यकरलापों में सामंजस्य स्थापित करने हेतु .प्रजामण्डल की शाखाएँ मसूरी, लाहौर और दिल्ली में खोली गई थीं. श्रीदेव सुमन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी सम्बद्ध थे. प्रजामण्डल के कार्यकरलापों से प्रभावित होकर गढ़वाल के  राजा नरेन्द्रशाह ने कुछ प्रगतिशील संकेत दिए. राज्य में संविधान सभा बनी तथा वाद विवाद समिति का गठन किया गया. इस तरह अगर हम देखें तो उत्तराखंड वासियों का स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

इस प्रकार उत्तराखण्डवासियों ने अपने अदम्य साहस,शौर्य, वलिदान से दे श को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. स्वाधीनता के बाद भी इस प्रदेश के वीर सपूतों ने अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है. आजादी के बाद हुए युद्धों में पूरे उत्तर प्रदेश के 2.334 जवान शहीद हुए, जिसमें आधे से अधिक 1234 शहीद उत्तराखण्ड की 60 लाख जनसंख्या में से थे. इन युद्धों में 430 शौर्य और वीरता के लिए पदक मिले. इसमें आधे से अधिक 233 पदक उत्तराखण्ड के सैनिकों ने प्राप्त किए. अकेले उत्तराखण्ड के 3 लाख से अधिक भूतपूर्व सैनिक हैं, जो उनके देश के प्रति असीम देशप्रेम को दर्शाता है. उत्तराखण्ड की ही दो रेजिमेंट गढ़वाल एवं कुमाऊँ बनी हैं, जो उनके स्वतन्त्रता संग्राम में महती भूमिका को प्रदर्शित करता है. धन्य वीर सपूतों को शत-शत नमन 

 



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