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साहित्य | पहाड़ी परंपराओं में ‘द्याप्त पूजन’, जागर और मसाण पूजन क्यों जरूरी ?
पहाड़ी परंपराओं में ‘द्याप्त पूजन’, जागर और मसाण पूजन क्यों जरूरी ?
पहाड़ में अक्सर आपने जागर, मसाण पूजा, गढ़देवी पूजन और देवता पूजन के बारे में सुना होगा। बहुत से पहाड़ी युवा, इनके पीछे की पूरी बातें नहीं जानते हैं। शहरों में रहने वाले परिवारों के बच्चे इस पूजा की विशेषता से अनभिज्ञ हैं। उनके लिए इन पूजाओं के बारे में विस्तार से बात करते हैं और सरल तरीके से बताते हैं। ये जानकारी पहाड़ी परपंराओं के जानकार प्रोफेसर डीडी शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखंड ज्ञानकोष’ से ली गई है।
देवभूमि उत्तराखंड में देवी देवताओ की पूजा के साथ, भूत प्रेतों और अदृश्य सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों की पूजा भी होती है। यहाँ दैवीय शक्तियों या अदृश्य शक्तियों के पूजन के लिए अलग -अलग विधियाँ अपनाई जाती हैं। इन्ही अलग अलग पूजा विधियों में एक है जागर विधि।
जागर विधि का अर्थ है जगाना। इसमें लोकवाद्यों का प्रयोग करके देवता विशेष को मानव शरीर में अवतरण कराया जाता है। उनसे समस्याओं का समधान के साथ साथ आशीर्वाद लेते हैं। उत्तराखंड की जागर विधा में एक प्रकार घड़ेली जागर या घणेली जागर भी है।
घडेली जागर या घणेली जागर उत्तराखंड की जागर विधा का एक रुप है, जिसमे पहाड़ में स्थित अद्र्श्य सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों की पूजा की जाती है। इन अदृश्य शक्तियों में पहाड़ों में स्थित परियां या आछरिया या गाढ़ गधेरों में स्थित गढ़ देवी की जागर गान गाकर उन्हें अवतरित किया जाता है और उनकी यथायोग्य पूजा की जाती है। जहाँ जागर में भूतांगी और राजंगी देवताओं के यशोगान गाकर उन्हें अवतरित किया जाता है, वहीँ घण्टेली जागर या घणेली जागर में रमोल गाथाएं गायी जाती है।
परी और गढ़देवी आदि अदृश्य शक्तियों की पूजा की विधि को घड़ेली, घटियाली, घण्याली, घणेली जागर आदि नामों से जाना जाता है। परियों और गढ़देवी को निराकार माना जाता हैं। इनके मन्दिर नहीं बनते, मूर्ति भी नहीं बनती, किन्तु इनके प्रतीक स्थापित होते हैं। किसी पहाड़ की चोटी परी और गधेरे में गढ़देवी के प्रतीकों की स्थापना होती है। उनकी पूजा, जागर वर्ष में दो बार प्रत्येक फसल चक्र में होती है। अतः प्रत्येक जागर या पूजा में बार-बार उसी जगह जाने की वजह से वह स्थान देवी या परी का ‘थानवास’ मान लिया जाता है।
परियों के लिए उक्त जगहों पर दो-तीन घरोंदे बना देते हैं। इन्हें खोपड़े भी कहते हैं। इनमें प्रतीक के तौर पर एक लोहे की डंडी, एक आध त्रिशूल, एक आध लोहे के दीपक वगैरह रख देते हैं, जिस पेड़ के नीचे खोपड़े बने होते हैं, उस पेड़ की टहनी में लाल-पीले, हरे कपड़े की चीर बांधे जाते हैं। अनाज के दाने, रोली, अक्षत, फूल-पत्ती से इनकी पूजा होती है। गढ़देवियों के लिए पानी के नजदीक झाड़ियों में घिरे स्थानों को चुना जाता है।
दोनों के प्रतीक चिन्हों में फर्क नहीं होता। घणेली जागर का उपाकर्म घरों में ही होता है। उसके लिए स्थापित स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। घणेली घर के आंगन में सम्पन्न होती है। दरी आदि से एक छपरा बनाते हैं जिसे ‘तड्यौ’ कहा जाता है। ‘तड्यौ’ के नीचे एक कोने में, एक थाल में चावल, सिन्दूर, चूड़ी, चरेऊ, आरसी-कंघी, रीबन-चुटिया आदि स्त्री अलंकरणों को सजाकर रखा जाता है और एक कोने में दीपक जलाया जाता है।
इस पूजा मान-मनौवल के साथ तन्त्र-मन्त्र, टोने टोटके और अभिचार– कृत्यों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। बहुत से घणेलिए अपने पास जंत्रियां भी रखते हैं। चक्रप्रतिष्ठा और उसकी ‘पूजा भी होती है। प्रायः ये पूजायें रात में सम्पन्न होती हैं। इनके शास्त्रीय विधान नहीं हैं, परन्तु लोक विधियाँ पक्की और रूढ़ हो चुकी हैं। इन्हें लोक परम्परा-सिद्ध अभिचार कहा जाता है। परियों की पूजा के साथ सम्बद्ध लोकगाथा ‘रमोल’ नाम से विख्यात है। गढ़देवी की पूजा के साथ शाक्त तंत्रों की बहुत चीजें सम्बद्ध हो गई हैं। परियों-गढ़देवियों के साथ जो अदृश्य पुरुष योनियाँ कल्पित की गई हैं, उन्हें ‘सिद्ध’ और ‘भूत’ कहते हैं।
इसमें वाद्य के रूप में डमरू और पानी की भरी पतीली का प्रयोग किया जाता है –
घणेली जागर, डमरू पर लगाई जाती है और इसमें एक सहवाद्य के रूप में पानी से भरी पतीली के ऊपर एक थाली रखकर उसे भी बजाया जाता है। इसका गाथा-गान एवं देवावतरण की प्रक्रिया जागर के समान ही होती हैं, परन्तु इसका आयोजन जागर के समान भूतांगी अथवा राजांगी देवताओं के सन्दर्भ में नहीं अपितु भारतगान की गाथाओं के समान रमोल गाथाओं के सम्बन्ध में किया जाता है।
यह गाथा विशेषतः परियों की घड़ेलियों के सन्दर्भ में किया जाता है। इसमें भूत-प्रेत, मसान, पिशाच, परी, आंचरी, गढ़ देवी आदि की गाथाएं सुनाई जाती हैं। घणेली जागर की शुरुवात’ संज्यावलि’ और देवस्तुति गान से होती है, उसके बाद जिसकी घणेली जागर होती है उसका गाथागान किया जाता है।
घणेली जागर की आखिरी रस्म ‘मशाणी पूजन’ से होती है। इस पूजा के दिन तड्यो में स्थापित की गयी पूजा सामग्री के साथ द्यणेली गायक और इसके आयोजक परियों, गढ़देवियों के खोपड़ों के पास जाते हैं, वहीं चक्रपूजा होती है। पूजा का समापन पहले
बकरे की बलि से होता रहा है, लेकिन बहुत सी जगहों पर अब इस परंपरा से बचा जाता है और नारियल चढ़ाया जाता है। इसके बाद सामूहिक भोज के साथ यह मान लिया जाता है कि सभी अथवा जिनके लिए अनुष्ठान रखा वह शक्ति शांत हो गई है।
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