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विचार | पटना में मोदी विरोधी मोर्चे का महाजुटान कितना कामयाब ?
पटना में मोदी विरोधी मोर्चे का महाजुटान कितना कामयाब ?
बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों का महाजुटान होने जा रहा है। मकसद है 2024 में बीजेपी को शिकस्त देने की साझा रणनीति बनाना। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी एकजुटता की इस महामुहिम के सारथी बने हैं। उनकी ही पहल 23 जून को विपक्ष के दिग्गज पटना में जुटने जा रहे हैं। पहले ये मीटिंग 12 जून को होने वाली थी लेकिन तब कांग्रेस के शीर्ष नेता उसमें शामिल नहीं हो पाते। डीएमके चीफ स्टालिन भी नहीं हो पाते। लेकिन अब सब जुटेंगे। राहुल गांधी भी होंगे। ममता बनर्जी भी होंगी। शरद पवार और अरविंद केजरीवाल भी होंगे। एमके स्टालिन भी होंगे और अखिलेश भी। एंटी-बीजेपी पार्टियों के तकरीबन हर बड़े चेहरे मौजूद होंगे। 2024 चुनाव से पहले विपक्ष के इस महाजुटान का बीजेपी के लिए आखिर क्या संकेत है? उसके लिए कितने फिक्र की बात है? सबसे बड़ा सवाल विपक्षी गठबंधन का नेता कौन होगा नीतीश कुमार या राहुल गांधी ? आइए समझते हैं।
नीतीश की सरपरस्ती में होने वाली विपक्षी दलों की ये महाबैठक इसलिए काफी महत्वपूर्ण है कि पहली बार चुनाव में बीजेपी को पटखनी देने की साझा रणनीति पर चर्चा होगी। इससे पहले मुख्यमंत्रियों के शपथग्रहण या संसद सत्र से पहले तमाम मौकों पर विपक्षी नेताओं की ऐसी ही जुटान हो चुकी है। लेकिन उसका मकसद शक्ति प्रदर्शन या सदन में बीजेपी को घेरने तक सीमित रहा। ऐसा पहली बार हो रहा है जब मकसद चुनाव में बीजेपी को पटखनी देने की रणनीति पर चर्चा है। लोकसभा चुनाव में अब सालभर से भी कम वक्त बचा है। कर्नाटक में बीजेपी की शिकस्त से कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष उत्साहित है। उन्हें 2024 में मोदी के तिलिस्म को तोड़ने की उम्मीद जगती दिख रही है। बिहार के डेप्युटी सीएम और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव तो इतने उत्साहित हैं कि आने वाले हर चुनाव में बीजेपी की हार की भविष्यवाणी कर रहे हैं।
इस महाजुटान की कोशिश लंबे समय से की जा रही है। लेकिन कांग्रेस को कर्नाटक के नतीजों का इंतजार था। कर्नाटक जीतने के बाद कांग्रेस ने विपक्ष को साफ कह दिया है कि 350 सीटों से कम पर कांग्रेस नहीं लड़ेगी यानी बाकी सभी पार्टियों के लिए करीब दो सौ से कम सीटें बचती हैं। वैसे
फरवरी में नीतीश कुमार दावा कर रहे हैं कि अगर सभी विपक्षी पार्टियां एक साथ आ गईं तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 100 सीटों का आंकड़ा तक नहीं छू पाएगी। क्या वाकई ये संभव है। हालांकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त जीत ने ग्रैंड ओल्ड पार्टी नए जोश में है। एकजुट विपक्ष के नेतृत्व को लेकर उसकी दावेदारी मजबूत हुई है। कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद अब विपक्षी एकजुटता की तस्वीर बदल गई है। उससे पहले तक ममता, केसीआर, केजरीवाल जैसे क्षत्रप अपने-अपने स्तर पर विपक्षी एकजुटता की मुहिम चला रहे थे लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने से खुलकर गुरेज कर रहे थे। कांग्रेस का नेतृत्व तो उन्होंने अब भी स्वीकार नहीं किया है लेकिन अब ग्रैंड ओल्ड पार्टी की अहमियत बढ़ गई है। विपक्षी एकजुटता के लिए वह अपरिहार्य हो गई है। इससे पहले तक सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी के खिलाफ एकजुटता की मुहिम में वह हाशिए पर चलती दिख रही थी। लेकिन कर्नाटक नतीजों के बाद तस्वीर बदल चुकी है। कांग्रेस की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसके शीर्ष नेताओं की बैठक में मौजूदगी हो सके, इसके लिए तारीख 12 जून से बदलकर 23 जून की गई, ताकि राहुल गांधी और खड़गे इसमें शामिल हो पाए। राहुल गांधी भी माहौल बनाने का ये मौका चूकना नहीं चाहेंगे, लेकिन साढ़े तीन सौ सीटों पर लड़ने की जिद पर अड़ने से नुकसान भी हो सकता है।
उधर बड़ा सवाल ये है कि क्या इस विपक्षी महाजुटान से बीजेपी के लिए क्या संकेत हैं? विपक्षी एकजुटता की किसी भी तरह की गंभीर मुहिम बीजेपी की धड़कनें बढ़ाने वाली तो होगी ही लेकिन सत्ताधारी पार्टी के लिए ये कितनी बड़ी चुनौती है? एक बात तो तय है कि अगर विपक्षी मोर्चा बन गया तो विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ जाएगा और विपक्ष को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिल जाएगीष हालांकि विपक्ष अभी एकजुटता की मुहिम में ही लगा है लेकिन बीजेपी 'मिशन 2024' में लग चुकी है। मंत्रियों से लेकर संगठन के नेताओं तक को सीटों का टारगेट दिया जा चुका है। वह भी चुनाव से पहले कुनबा बढ़ाने की कवायद में जुटी है। अकाली, टीडीपी जैसे पुराने सहयोगियों को फिर से जोड़ने की कोशिशें हो रही हैं। विपक्षी दलों का अंतर्विरोध भी बीजेपी को राहत पहुंचा रही होगी।
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को छोड़कर बाकी सभी विपक्षी दलों की सियासी जमीन किसी राज्य विशेष तक ही सीमित है। अरविंद केजरीवाल की AAP भी दिल्ली और पंजाब में ही मजबूत है। हर राज्य के अपने-अपने सियासी समीकरण हैं। राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, केसीआर...सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं, सबकी अपनी राजनीति। विपक्ष की तरफ से आखिर मोदी के टक्कर में चेहरा कौन होगा? ये एक ऐसा सवाल है जो पटना की बैठक में एकजुटता का असल इम्तिहान ले सकता है। बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की तरफ से साझा उम्मीदवार उतारने की दिशा में सहमति का रास्ता इतना आसान भी नहीं है। वजह है अलग-अलग राज्यों का अलग-अलग सियासी समीकरण। वजह है कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के अपने-अपने हित। इस अंतर्विरोध से पार पाना आसान नहीं होगा। पश्चिम बंगाल, यूपी, दिल्ली, पंजाब, तेलंगाना जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दल कांग्रेस को खुद के लिए जगह छोड़ने का दबाव बना रहे हैं। ममता बनर्जी खुलकर कह चुकी हैं कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं और बीजेपी को सीधी टक्कर दे रहे हैं, वहां कांग्रेस उनके लिए मैदान खाली कर दे। लेकिन कांग्रेस शायद ही ये स्वीकार करे।
वैसे विपक्षी एकजुटता की मुहिम को व्यावहारिकता की कसौटी पर कसकर देखें तो ये जमीन पर शायद उतना मजबूत नहीं दिखती जितना कागज पर। ऐसा इसलिए कि क्षेत्रीय दलों का प्रभाव एक-एक राज्य तक ही सीमित है। संयोग से ये वहीं राज्य हैं जहां कांग्रेस काफी कमजोर है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में मजबूत हैं लेकिन यूपी, राजस्थान या किसी अन्य राज्य में उनके समर्थन या विरोध का कोई खास असर तो होने से रहा। वैसे ही अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का यूपी से बाहर कहीं समर्थन या विरोध आखिर क्या फर्क ला पाएगा? जिन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है, वहां क्षेत्रीय दलों के समर्थन या विरोध से कोई खास फर्क पड़ने से रहा। इसके बावजूद सीट शेयरिंग पर सिरफुटव्वल की स्थिति रहेगी। यूपी, गुजरात, राजस्थान, एमपी, दिल्ली, हिमाचल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा, अरुणाचल, कर्नाटक, झारखंड और त्रिपुरा ये 16 वो राज्य हैं जहां 2019 में बीजेपी को तकरीबन 50 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा वोट हासिल हुए। अगर वह अपने पुराने वोटशेयर को बरकरार रखने में कामयाब रही तो इन राज्यों में तो किसी भी तरह के महागठबंधन का कोई असर होने से रहा। हां, अगर बीजेपी के खिलाफ साझा उम्मीदवार उतारने में विपक्ष कामयाब होता है तो महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पंजाब, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, दिल्ली, केरल जैसे राज्यों में बीजेपी के साथ खेल जरूर हो जाएगा। हालांकि, अभी तो कवायद शुरू हुई है, बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की तरफ से साझा उम्मीदवार उतारने पर सहमति अंतर्विरोध की वजह से फिलहाल दूर की कौड़ी दिख रही है।