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उत्तराखण्ड में होली गीतों का चढ़ा रंग, बच्चे भी उतरे गायन में


होली  का त्यौहार आने ही वाला है और उत्तराखण्ड में होली गीतों की बहार दिखने लगी है। यू-ट्यूब के माध्यम से पूरे देश में कुमाऊंनी संस्कृति का प्रचार प्रसार हो रहा है। शास्त्रीय संगीत पर आधारित कुमाऊंनी बैठकी होली की परंपरा देशभर में अकेली व वर्षों पुरानी है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती आ रही है. होली के तीन महीने पहले से ही कुमाऊं में होली का रंग चढ़ने लगता है. कई रागों और सुर-तालों का समावेश लिए कुमाऊंनी होली गायन में अभी भक्तिमय गीत गाए जा रहे हैं. पौष माह के पहले रविवार से शुरू हुई इस होली में झिझोरी, राग धमाल, जंगला, जंगला काफी, जैजेवंती, खमार, भैरवी, राग दरबारी के अलावा कई रागों को समयबद्व ढंग से गाया जा रहा है. बसंत पंचमी के बाद भक्तिमय बैठकी होली शृंगार रस में बदल जाती है और शिवरात्रि के बाद राधा-कृष्ण के रासरंगों पर आधारित बृज की होली गाई जाती है.
हाल के वर्षों में बैठकी होली के जानकार कम जरूर हुए हैं, मगर इसने अपना शास्त्रीय रूप नहीं खोया. गायकों के लिए बैठकी होली साथ बैठने का एक जरिया है. यहां कुमाऊंनी, अवधी व खासतौर पर बृजभाषा में होली का गायन होता है. बृज में 14 व कुमाऊंनी में 16 मात्राओं में होली गायन होता है. कुमाऊंनी होली जग ताल या चांचर में गाई जाती है. जानकार बताते हैं कि होली गायन की शुरुआत अमीर खुसरो के वक्त से हुई थी और कुमाऊं में इस होली का अपना अलग ही महत्व होता है.
वक्त के साथ आज इस होली में भी काफी बदलाव देखे जा रहे हैं. बहरहाल आनेवाली पीढ़ी को इस संस्कृति से रूबरू करवा रहे हैं हल्द्वानी निवासी उप्रेती बहनें, जो बच्चों को इसकी मूल धारणा से तो अवगत करा ही रहे हैं साथ ही इस परंपरा का निर्वहन भी बखूबी कर रहे हैं.
उप्रेती बहनें कहती हैं कि बच्चों को अभी से अगर हमारे रीति रिवाजों के बारे में बताया जाएगा, तो इसका उनपर सकारात्मक असर पड़ता है. बच्चे अभी से बैठकी होली का महत्व जानेंगे और तब एक बार के लिए उम्मीद की जा सकती है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चल पाएगा.

 

 



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