होम |
विचार | दीपावली के 11 दिन बाद पहाड़ में क्यों मनाते हैं इगास बग्वाल ?
दीपावली के 11 दिन बाद पहाड़ में क्यों मनाते हैं इगास बग्वाल ?
पूरे देश में दीपावली त्यौहार की धूम है..लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों यानी पहाड़ी इलाकों में एक और दिवाली मनाई जाएगी। दीपावली के ठीक 11 दिन बाद पहाड़ी इलाकों में इगास बग्वाल मनाने की परंपरा है। इगास बग्वाल क्यों मनाया जाता है और इसकी परंपरा कब शुरू हुई, आइये समझते हैं।
मान्यता है कि भगवान राम के अयोध्या लौटने की खबर पहाड़ों में 11 दिन बाद पहुंची थी। इसीलिए लोग दीपोत्सव के 11 दिन बाद इगास (बग्वाल) मनाते हैं। इगास में भैलो खेलने की परंपरा है। हालांकि यह भी माना जाता है कि दीपावली के समय पहाड़ों में लोग खेती में व्यस्त रहते हैं। इसीलिए खेती के काम निपटाने के इगास का त्योहार मनाते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया। दूसरी मान्यता के अनुसार दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी। दीपावली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी।
हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इस दिन विष्णु भगवान की पूजा का विधान है। उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। इसे गढ़वाल में ईगास और कुमाऊं में बग्वाल कहा जाता है।
ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ एक रस्सी से बांधी जाती है। इसके बाद गांव के ऊंचे स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है।