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साहित्य | उत्तराखण्ड ने हिन्दी साहित्य को दिए बेशकीमती हीरे
उत्तराखण्ड ने हिन्दी साहित्य को दिए बेशकीमती हीरे
28 राज्यों से बने भारत देश में सभी राज्यों का अपना महत्व है जो मुख्यत: उस राज्य की संस्कृति बोली भाषा और साहित्य पर आधारित है। उत्तराखंड राज्य अपनी पावन धरती और प्राकृतिक सुंदरता के कारण संपूर्ण भारतवर्ष के अन्य राज्यों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए खड़ा है। हमारे भारतीय एवं प्राचीन ग्रंथों के कथन अनुसार उत्तराखंड राज्य देवताओं की सर्वाधिक रमणीय भूमि के रूप में बहुत ही ज्यादा प्रसिद्ध है यही कारण है कि इस राज्य को देवभूमि अर्थात देवो की भूमि के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड में बोली जाने वाली मुख्य रूप से 3 भाषाएं, पहली गढ़वाली, दूसरी भाषा जौनसारी और तीसरी भाषा कुमाऊनी, जो बहुत ही प्रचलित रूप से बोली जाती हैं। भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण के कथन अनुसार उत्तराखंड राज्य में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं।
उत्तराखण्ड का लोक-साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। गीतों की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो कुमाऊँ का लोक-साहित्य विशेष रूप से जन-जन को आकर्षित करता है। उत्तराखण्ड लोक साहित्य छः प्रकार के माने जाते हैं: लोकगीत ,कथा गीत ,लोक-कथाएँ ,लोकोक्तियाँ कथाएँ ,पहेलियाँ और अन्य रचनाएँ। हांलाकि उत्तराखंड साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। देवभूमि ने ऐसे कई रचनाकारों को जन्म दिया जिन्होंने हिंदी भाषा व् हिंदी साहित्य के स्वरुप को और समृद्ध बनाने का कार्य किया। सुमित्रानन्द पंत ,पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, शिवानी, मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी जैसे अनेक उत्तराखंडी साहित्यकारों ने हिंदी को समृद्ध बनाने में अहम योगदान दिया है।
सुमित्रानंदन पंत : 20 मई, 1900 को प्रकृति की गोद में बसे अल्मोड़ा जिले के कौसानी की धरती ने सुमित्रानंदन पंत के रूप में देश को छायावादी, प्रगतिवादी, अध्यात्मवादी कवि दिया जिसने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपना विशेष योगदान दिया। पंत जी की स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, वाणी, पल्लव, युगांत, उच्छ्वास, ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम प्रमुख रचनाएं रहीं हैं। अपनी कलमकृती से दिए योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) जैसे उल्लेखनीय सम्मानों से सम्मानित किया जा चूका है।
उस फैली हरियाली में,
कौन अकेली खेल रही मा!
वह अपनी वय-बाली में?
सजा हृदय की थाली में--
क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,
मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,
स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
ऊषा की मृदु-लाली में--
किसका पूजन करती पल पल
बाल-चपलता से अपनी?
मृदु-कोमलता से वह अपनी,
सहज-सरलता से अपनी?
मधुऋतु की तरु-डाली में--
रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,
भर कर मुकुलित अंगों में
मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?
खिल खिल बाल-उमंगों में,
हिल मिल हृदय-तरंगों में!
-सुमित्रानंदन पंत
मंगलेश डबराल : जाने माने साहित्यकार मंगलेश डबराल का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले के काफल पानी गांव में हुआ था। उनकी पहाड़ पर लालटेन, हम जो देखते हैं, लेखक की रोटी, एक बार आयोवा, आवाज भी एक जगह है जैसी प्रसिद्ध काव्य रचनाएं हैं। मंगलेश डबराल को साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा शमशेर सम्मान, स्मृति सम्मान, पहल सम्मान और हिंदी अकादमी दिल्ली के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चूका है। उनके साहित्य में दिए योगदान ने साहित्य को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाई है।
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नक़ल था
कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ
कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा</