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चन्द्रकुँवर बर्त्वाल की कविताओं में गढ़वाल हिमालय का ख़ूबसूरत वर्णन


 

हिमालय सदा से ही सबको अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। संस्कृत के महान कवियों में गिने गए कालीदास ने तो हिमालय की महिमा-"अस्त्युरस्याम ऋषि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराज:..." सम्बोधित कर की तो उसी हिमालय को अपने काव्य में चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने यह कहकर -

"शोभित चन्द्र कला मस्तक पर

भस्म विभूषित नग्न कलेवर

कटि पर कृष्ण गजानिन सा घन

गिरती घोर घोष कर पद पर

बज्र छटा सी दीप्त सुरधनी

शांत नयन गम्भीर मुखाकृति

अथ इतिहीन, वीर्य यौवन घृति

दीप्त-प्रभा रवि उद्भासित मुख

मूर्ति मान आत्मा की जागृति

ज्योति लिखित ओंकार स्वरित ध्वनि

आदि पुरूष हे! हे पुराण मुनि।।"

20 अगस्त सन 1919 को उत्तराखंड के अगस्त्यमुनि तीर्थ के नजदीक मालकोटी गाँव में जन्मे चन्द्रकुँवर बर्त्वाल का हिमालय से साक्षात्कार गाँव में अपनी बाल्य अवस्था में आंगन पर घुटनों के बल  घिसटते वक्त मुंह में अगूंठा रखकर चूसते वक्त ही हो गया था, क्योंकि चन्द्रकुँवर के घर के ठीक पूर्व दिशा में चौखम्बा की छटा देखते ही बनती है। अब केवल उस दृश्य कल्पना ही की जा सकती है कि एक छोटा बच्चा मुँह में अंगूठा डाले अपलक, सूर्योदय के वक्त रवि रश्मियों के गिरने से पल पल रंग बदलते चौखम्बा की छवि को निहारता रहता। ऐसे में उसके बाल मन पर क्या-क्या चित्र उकेरा करती रही होगी, पगडण्डियों पर अपने बाल सखाओं की टोली के साथ गायों को चरा कर , गोधूलि बेला पर जब बाल चन्द्रकुँवर अवसान की ओर जा रहे रवि रश्मियों से पल पल रंग बदलते चौखम्बा की नयनाभिराम दृश्यावलियों ने तो तभी कविता के बीज उसके सुकोमल मन में बो दिये रहे होंगे।

तभी तो वे यह लिखने में सक्षम हुए होंगे कि -

लगी दिखने आज हिमालय की बर्फानी रजत चोटियाँ

बादल आज देखते ही रह गये

बर्फ से भरी घाटियाँ

 

कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने पृथ्वी और आकाश के बीच फैले हिमालय और हिमालयी पर्यावरण को अपने साहित्य का कथोपकथन ही नहीं बनाया बल्कि शब्दों में उन चित्रित बिम्बों को खींचकर पाठकों के मन मस्तिष्क पर अमिट रूप से अंकित कर दिया-

रोवेगी रवि के चुम्बन से

अब सानंद हिमानी

गूँज उठेगी अब गिरि गिरि के

उर से उन्मद वाणी

हिमालय को यह प्रतिमान सर्वकालीन कवियों में कोई न दे पाया जो बर्त्वाल जी ने दिया है।

हिमानी (हिम से भरी हिमालय की घाटियों पर पड़ती धूप की किरणों से  बर्फ के पिघलने को जिस तरह से उन्होंने हिमालय के रोने का प्रतिमान देकर उस जल का बहकर गिरि(जंगलों) तक पँहुचने पर वृक्षों का प्रसन्न होने (उन्मद वाणी) को निरूपित किया है वह साहित्य में अन्यत्र बहुत कम दृष्टव्य होता है।

गीत माधवी के 31वें छन्द में कवि

लिखते हैं कि -

गिरि से सुदूर मैंने देखा

थी चमक रही सरिकी रेखा

अस्पष्ट क्षितिज के अंतर पर

वह ऐसी थी लग रही सुघर

मेघों में जैसे शशि लेखा

इसी कविता के 64वें छंद में एक बार फिर कवि पूर्व दिशा के हिमशिखर से उड़ते बादलों (क्योंकि हिमशिखर कवि के घर की पूर्व दिशा में है) का वर्णन करते हुए लिखता है कि -

पूर्व दिशा से उड़ने लगते,

जब कुंकुम के बादल

धरणी पर हे गिरने लगता,

जब अनुराग सुकोमल।

 चन्द्रकुँवर के साहित्य में केवल प्रकृति चित्रण के ही दर्शन नहीं होते बल्कि उसमें वहाँ की मिट्टी की सौंधी गंध के साथ वहाँ का जन जीवन, रहन-सहन, वहाँ की विचारधारा और रूढ़ियाँ भी हैं।

कवि के ही शब्दों में कहें तो - उनका परिचय इस प्रकृति से बहुत पुराना है। जन्म जन्मांतर का है,  उसकी यदि कोई अन्तिम इच्छा है तो वह यही कि यदि उसका पुनः जन्म हो तो इन्ही फूलों से लदी घाटियों, हिम से ढकी चोटियों के बीच हो-

तुम्हारे साथ अनेकों प्रात, मनोरम दो पहरें निर्वात

अनेकों बीती संन्ध्याएं, अनेकों रातें पुलकित गात

न जाने कितने प्रिय जीवन, किए मैंने तुमको

अपर्ण माधुरी मेरे हिमगिरि की।

चन्द्रकुँवर जी की कविताओं में बादल, वर्षा और हिमालय का विशेष स्थान है। हिमालय चन्द्र कुँवर के लिए बहुआयामी सा लगता रहा है। जिसको वे जितनी बार भी देखते हैं, नित नयें रूप में पाते हैं। वे उसके विविध रूपों को वर्णित करते हुए नहीं अघाते। यह हिमालय की ही परिवर्तन शीलता है कि कवि की अस्थिरता नहीं। स्वयं वे हिमालय के बारे में लिखते हैं -

देखकर भी रात-दिन मैं स्वर्ग सुन्दर

हिमालय से प्राण अपने भर न पाया

नयन में वह चारू शोभा धर न पाया

इस हिमालय के वे अनेक रूपों का वर्णन करते हैं। हिमालय की शुभ्र, स्वच्छ और उज्जवलता को देखकर कवि उसे पूछ बैठता है -

किस प्रकाश का हास तुम्हारे मुख पर छाया

तरूण तपस्वी तुमने किसका दर्शन पाया

सुख-दुख में हंसना ही किसने तुम्हें सिखाया

किसने छू कर तुम्हें स्वच्छ निष्पाप बनाया?

हिमालय को देखकर ये प्रश्न कई लोगों के मन में उठे होंगे, पर उन प्रश्नों को सरल भाव और भाषा के माध्यम से कवित्वपूर्ण ढंग से चन्द्रकुँवर ही पूछ पाये।

हिमालय कविता के उनके दो मुक्तक हिमालय के दो रूपों का वर्णन अलग अलग ढंग से करते हैं- 

सोह रहा है आज हिमालय शांत मेघ सा

जिसमें जमकर नील हुई हो उज्जवल वरसा

तट रेखाएं जिसको, दीप्त हंसी से उजली

करती हों पीछे छिप कौंध - कौंध कर बिजली

ये चन्द्रकुँवर की कविता का ही कमाल है कि जिस हिमालय पर अनेकों तपस्वी तप करते रहे और करते हैं उस हिमालय की शोभा उन्होंने इन शब्दों में वर्णित की -

ये आनंद लोक के गिरि हैं,

सदा जहाँ नयनों में

हंसता है हिम उज्जवल।

जहाँ ग्रीष्म में ही रहते हैं,

उग्र ज्वलनमय भास्कर

शशि से हो प्रिय शीतल

चन्द्रकुँवर का हिमालय वर्णन कालीदास से प्रभावित है। कालीदास की ही तरह उन्होंने हिमालय और हिमालयी क्षेत्र सहित वहाँ के सामान्य जीवन के बहुत ही जीवंत चित्र कविताओं में प्रतिबिम्बित किये हैं -

इस एक सुन्दर छंद में कवि ने धूमिल मेघ और हिमालय से निकलने वाली हिमानी को जिस ढंग से चित्रित किया है वह उन्हें उपमा का कवि करार देता है -

अब छाया में गुंजन होगा

वन में फूल खिलेंगे

दिशा-दिशा में सौरभ के

.....

रोवेगी रवि के चुम्बन से

अब सानंद हिमानी

फूल उठेगी जब गिरि-गिरि के

उर की उन्मद वाणी

सूरदास जी को वात्सल्य रस का सम्राट कहा गया है। बच्चों के भावों का जितना सूक्ष्म अवलोकन उन्होंने किया है उतना अन्यत्र दुर्लभ है। किन्तु हिमालयी क्षेत्रों के पर्वतीय ढलानों पर बिजली कड़कने के डर से ढलानों पर दौड़ते बच्चों का जितना सुन्दर चित्रण चन्द्रकुँवर जी ने किया है वह अभूतपूर्व है। मित्र को याद दिलाते हुए कवि ने लिखा है -

याद हैं तुम्हें न मित्र,उस दिन के बादल

लेटे थे गिरि ऊपर हम कोमल दूब पर

फिरते थे इधर - उधर शैलों पर नीर-धर

करते कुछ परामर्श, आपस में सूर्य को

...........................................

देख-देख शिखरों पर आ-आ एकत्र हो

होती थी नील-नील शैलों की श्रेणियां

जिनको थी डरा रही फट-फट कर बिजलियाँ

 

देख हमें दौड़ रहे,ढालों पर पवन में

पकड़ो कह कड़की थी बिजली तन गगन में

 

हिमप्रात कविता में चन्द्रकुँवर जी हिमालयी क्षेत्र के चीड़ के जंगलों, पशु पक्षियों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि -

पृथ्वी जगी, हुआ चीड़ों में गुंजित मर्मर

डोली पवन, कंपे छाया के अंग मनोहर

 

हिमालय से निकलने वाली नदी पर जितना चन्द्रकुँवर रीझे हैं उतना कोई दूसरा कवि न रीझा। पर्वतीय प्रदेश से लेकर, गंगोत्री से इलाहाबाद तक उन्होने गंगा को देखा था जितना सुन्दर वर्णन चन्द्रकुँवर ने किया है उतना किसी दूसरे ने नहीं किया - उन्होने लिखा कि-

गिरिवन से छूटी एक नदी

घाटी में गाती घूम रही

आँखों में रवि का बिंब नचा

अधरों में धर-धर चूम रही

 

हिमशिखर जो ऋषियों के श्वेत केश के समान हैं। नदियों के स्वर मानों उनके मन्त्रोचार हैं। पक्षी हैं तो वे भी मानव के सुख दुख के साथी हैं। इन बिम्बों के वर्णन में सादगी और ईमानदारी के साथ ऐसी सच्चाई है जो अपनी धरती की, हिमवन्त की अलग पहचान बनाती है। हिमवंत के सारे उल्लास सारे दुख-दर्द का वर्णन कवि ने अपनी कविताओं में किया है। ऊँचे-ऊँचे हिमशिखर, कहीं नग्न पहाड़ियों, देवदार, चीड़, बांज बुरांश के जंगल, हिरणों की चंचलता, पपीहों की पीन पुकार, झींगुरों की झंकार, बादलों की गड़गड़ाहट, उनके बीच बिजली का कौंधना, पगडंडियों आदि सभी के दर्शन उनकी कविताओं में होते हैं।

हिमालयी क्षेत्र में पाये जाने वाले पक्षी काफल पाक्कू से भी हिन्दी साहित्य का परिचय उन्होंने पहली बार कराया है। बाद में इसी पक्षी को जानने की जिज्ञासा में उनकी मृत्यु के बाद तत्कालीन हिन्दी जगत के मूर्धन्य कवियों और साहित्य प्रेमियों ने उनकी कविताओं की खोज करते हुए उनके बारे में जानने की जिज्ञासा के चलते उनके कार्यों के मूल्याँकन की एक हल्की पहल हुई। इसी काफल पाक्कू कविता में कवि ने वर्णन किया है -

हे मेरे प्रदेश के वासी

छा जाती वसंत जाने से जब सर्वत्र उदासी

झरते झर-झर कुसुम तभी, धरती बनती निधुवा सी

हिमालय पर अपनी छोटी छोटी कविताओं में चन्द्रकुँवर ने हिमालय को उच्च स्थान देते हुए लिखा है -

तुम से पावन और उच्च कुछ भी पृथ्वी के

पास नहीं था, इसीलिए पूजन करने की

तुम्हें उठा हाथों में कमलों की माला सी

...

आगे वो लिखते हैं -

सो रहा है आज हिमालय शान्त मेघ सा

जिसमें जमकर नील हुई हो उज्जवल बरसा

तट रेखाएं जिसकी, दीप्त हंसी से उजली

करती हों पीछे छिप कौंध - कौंध कर बिजली

 

हिमछाया, हिमवन्त, हिम माधुरी उनकी ऐसी ही कविताएं हैं जिनमें उन्होंने हिमालय के विविध रूपों को सामने रखा है।

हिमालय उनकी रग-रग में इस कदर समाया है कि उन्होंने यहाँ पुनर्जन्म लेने की इच्छा भी इन शब्दों में वयां की -

मुझे जगाना पुष्प बनाकर इस सुख पूर्ण भुवन में

मुझे उड़ाना भ्रमर बनाकर फिर इस मृदुमंद पवन में

खग मृग, तरू पल्लव जो कुछ बन कर जागूं मैं

मुझे सदा ही रखना अपनी कल किरणों के वन में

अपने हैदृयिक और चाक्षुष बिम्ब से उन्होंने हिमशिखरों से लेकर सागर तट बहती गंगा का जो बिम्ब खींचा है उसे हिमवंत कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल सरीखा कोई दूसरा अब तक कागजों पर न उतार पाया।

उत्पन्न स्वर्ग के हिम से हो

शैलों में काट स्व बचपन को

यौवन पर पृथ्वी में बहकर

अन्त में डूब जाती सत्वर

 

यह गीत मधुर गाती-गाती

प्रतिपल निज उद्गम से आती

यह गीत मधुर गाती-गाती

सागर से मिलने को जाती

 

चन्द्रकुँवर की कविताओं में हिमालय के विविध चित्र हैं। हिमालय पर लिखी इतनी अधिक कविताएं किसी और कवि के नाम से नहीं मिलती हैं और भावों का इतना वैविध्य भी अन्यत्र कहीं नहीं दीखता। चन्द्रकुँवर ने हिमालय को प्रात:, संध्या, चांदनी, वर्षा में विभिन्न  छवियों में चित्रित किया ही साथ ही उसे कई सन्दर्भों में जीवंत स्वरूप भी प्रदान किया। कभी वे उसे 'स्वच्छ केश ऋषी, राशि तरूण तपस्वी' के रूप में देखते हैं 'बिखरा जटा वह तापस' तो कहीं जाग्रत आत्मा की विराट शक्ति के रूप में। सौन्दर्य ऐसा भी हो सकता है उसकी एक वानगी देखिए-

तांडव नृत्य कला सी नाच रही इन शिखरों पर

पवन उड़ रहा निज बर्फानी गुहा नीड़ से

तीव्र बाज सा पंजों से विदीर्ण करता वन

झपट रहा नागिनी सी मुड़ी नदियों पर....

मृत्यु संचरण करती इन सूने शिखरों से

झुककर नीचे देख रही गिरि की गहराई

 

 कवि का कहीं हिमालय के साथ श्रद्धा, प्रेम और आत्मियता का मधुर भाव जुड़ा है -

"माधुरी मेरे हिमगिरि की", "नीला देवदारू का वन है" और मुझे इसी में है सन्तोष-"हिमगिरि में एक छोटा सा घर हो /धूप सेकने को दिनभर को/ जिस पर बहती रहे हवा निर्दोष" आदि उनकी मधुर भाव युक्त हिमालय सम्बन्धी सुन्दर कविताएं हैं। हिमालयी जंगलों में उगने वाले रैमासी के फूल को भी उन्होंने साहित्य में अमर बना दिया।

कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने 13वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता "पुरातन" शीर्षक से लिखी। बारह पंक्तियों की इस कविता में कवि ने अपने मिडिल स्कूल नागनाथ के आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है।

 ज्येष्ठ मास में बाँज बुरांश के घनों जंगलों में बाल टोली के साथ काफल बीनते हुए, कोयल, काफल पाक्को की मधुर आवाज  से तो कविता ने उनके मन में तभी अंगडाई लेनी प्रारंभ कर दी थी तभी वे उम्र के 13वें वर्ष में लिख गये कि...

ये बाँज, पुराने पर्वत से, यह हिम सा ठंडा पानी

ये फूल लाल संध्या से भी, इनकी यह डाल पुरानी।

इस खग का स्नेह काफलों से, इसकी कूक पुरानी,

पीली फूलों काँप रही, पर्वत की जीर्ण जवानी।।

देववाणी संस्कृत हो या फिर भारतवंशियों की हिन्दी भाषा-इनमें रचित काव्यों में हिमालय का जितना वर्णन हुआ है उनमें  संस्कृत में कालीदास को छोड़कर और हिन्दी में थोड़ा सा निराला को छोड़कर  हिमालय को जीने की जो साकार अनुभूति बर्त्वाल जी के काव्य में है, उसकी अनुभूति अन्यत्र बहुत कम ही देखने को मिलती है । बर्त्वाल जी ने न केवल बाल्य उम्र से ही हिमालय के सौंदर्य को निहारा है बल्कि शिवालिक हिमालय में जन्म लेकर इसके विहंगम स्थलों नागनाथ पोखरी, मैकोटी में बाल्यावस्था बिताने के बाद इसे संयोग कहें या विधि का विधान कि आगे की पढ़ाई के लिए चन्द्रकुँवर को पौड़ी जाना पड़ा। पाठक जानते होंगे कि पौड़ी के किसी भी क्षेत्र से सुबह सवेरे उठते ही विराट, विहंगम और वृहत हिमालय के दर्शन होते हैं। नागनाथ में रहते हुए प्रकृति और परिवेश का जो वातावरण कवि को मिला था, कमोवेश वही वातावरण पौड़ी का भी था, अतः कोमल मन में हिमालय की अनुभूति के बीजों का अंकुरण होने के लिए अनुकूल परिवेश यहाँ उपलब्ध हो गया।

 विधि का विधान देखिए कि स्वानुकूल विचारों का मित्र शम्भु प्रसाद बहुगुणा भी एक वरदान की भाँति यहाँ मिल गया। समय के गर्भ में अंकित इस मित्रता का इतिहास साक्षी है कि शम्भु प्रसाद बहुगुणा ने जितनी मित्रता कवि के जीवित जीवन में निभाई उससे कहीं अधिक कवि के मृत्यु के पश्चात दोस्ती को पावन पवित्र अमरता प्रदान कर दी। जैसे राम के साथ हनुमान का नाम जुड़ गया वैसे ही चन्द्रकुँवर के साथ शम्भु प्रसाद का नाम भी स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया।

इस जोड़ी के दोस्ती के जो दस्तावेज अब तक प्रकाश में आये हैं, वह ये बताने के लिए काफी हैं कि केवल शादी की जोड़ियां ही स्वर्ग में नहीं बनती, बल्कि विधाता दोस्ती की कुछ जोड़ियों को तो निश्चित ही स्वर्ग में बनाता है। चन्द्रकुँवर, चन्द्रकुँवर बर्त्वाल न होते यदि उन्हें शम्भु प्रसाद बहुगुणा जैसा मित्र न मिला होता। यह भी ध्रुव सत्य है कि अभी

चन्द्रकुँवर का स्थान न केवल हिन्दी साहित्य में  मूल्यांकित होना शेष है बल्कि दुनिया भर के, किसी भी भाषा के साहित्य से उनकी तुलना  का भार अधिक साबित होना शेष है। क्योंकि इतनी कम उम्र में इतनी विशद ऊँचाई तक पहुंचने वाला कवि समकालीन समय तक कोई दूसरा तो अखिल विश्व में अभी नहीं है। संभवतः जीवन की तुलना में उन्हें उत्तराखंड का शंकराचार्य कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह बात कहने का आशय केवल यह है कि जैसे आदि गुरू शंकराचार्य ने 13 वर्ष की आयु तक ही 16भाष्य लिखकर अल्पायु में ही यह नश्वर संसार छोड़ दिया था, वैसे ही उत्तराखंड के इस चन्द्रकुँवर रूपी शंकराचार्य ने 400 से अधिक कालजयी कविताओं की सौगात साहित्य को सौंपकर यह नश्वर संसार छोड़ दिया।

अगर हम चन्द्रकुँवर बर्त्वाल द्वारा रचित पूरे साहित्य का अवलोकन करें तो यह बात भली भांति समझ में आती है कि प्रकृति के चितेरे इस हिमवंत कवि ने वही लिखा जो अपने अल्पतम जीवन में  देखा /भोगा उसी सच्चाई को यथार्थता के साथ अपनी लेखनी के माध्यम से अपने साहित्य का अवलम्बन बनाया। चीड़ के जंगलों की नीरव शान्त वादियों ने उनके कवि मन को वह परिवेश उपलब्ध कराया जिसमें नन्दिनी, गीत माधवी,पयस्वनी, प्रणयिनी, विराट हृदय,हिम ज्योत्सना, विराट ज्योति, नाट्य नंदिनी, मानस मन्दाकिनी, उदय के द्वारों पर, काफल पाक्कू, साकेत परीक्षण, कंकण पत्थर, जैसी अमर पद्यात्मक रचनाओं सहित लगभग 750 कवितायें, कुछ नाटक एवं कहानी संग्रह काल के कपाल पर अंकित हुई।

अपनी उम्र के तेरहवें वर्ष में ही अपनी पहली कविता से हिन्दी साहित्य संसार में प्रवेश करने वाले इस कवि ने 28 वर्ष 24 दिन  की उम्र तक ही जीवित रह कर साहित्य जगत को वो अनुपम निधि सौंप दी जिसके मूल्यांकन के लिए अभी कार्य होना बाकी है।

@हेमंत चौकियाल

अध्यापक

रा०उ०प्रा०वि० डाँगी गुनाऊँ

रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड)

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