सोमवार, 24 मार्च 2025 | 02:11 IST
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गंगा नंदिनी जी का लेख- रक्षाबन्धन पर नारी सम्मान का प्रण भी करें


धर्मे रक्षते रक्षतः अर्थात धर्म हमारी रक्षा करता है. हालांकि समय के साथ-साथ हमने धर्म की परिभाषा बदलते देखी हैं और समय के अनुसार हमें भी धर्म को परिभाषित करना होता है. रक्षाबंधन का मतलब केवल अच्छे कपड़े, गिफ्ट और मिठाइयां ही नहीं हैं. ये प्रतीक है भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का. आमतौर पर इसका मतलब भाइयों द्वारा बहनों की रक्षा और उनका ध्यान रखना है परन्तु अब समय आ गया है कि हम रक्षाबंधन के मूल को समझे, विस्तार दें और उसके पीछे के वास्तविक अर्थ को जाने
रक्षाबंधन के माध्यम से भाई-बहन दोनों एकदूसरे की रक्षा करते हैं. रक्षा का बंधन एक प्रतीक है, एक सेतु है रक्षा का. हमारी संस्कृति में एक ओर तो हम स्वतंत्रता को महत्व देते हैं परन्तु दूसरी ओर बंधन का उत्सव मनाते है, बंधन भी प्रेम का, धर्म का और मर्यादा का, जिसमें हम सहज भाव से प्रवेश करते हैं और यह एक ऐसा बंधन है जो हमें मुक्त करता है; दिशा देता है और हमारे मूल, मूल्य, जड़ों से जोड़ता है.
जो समाज अपनी शक्तियों को अंडरस्टीमेट करता है, कमजोर, अयोग्य या असमर्थ मानता है उस समाज का पतन होता है. हमारे इतिहास में इसका उल्लेख भी मिलता है, चाहे वह महाभारत हो या फिर रामायण हो इसलिये हमें अपने अतीत से सीखना चाहिए. हमने देखा कि जिस काल में नारियों की रक्षा नहीं हुई या उनके साथ अहित या अन्याय हुआ उस काल में कहीं न कहीं हमें धर्मयुद्ध देखने को मिला है.
अगर हम अपनी शक्तियों (नारियों) को उनकी शक्तियों का एहसास नहीं दिलायेंगे तो समय अवश्य उनकी शक्तियों का अहसास दिलायेगा इसलिये समाज का कर्तव्य है कि वह अपनी उन्नति, प्रगति और समृद्धि को केवल अपनी जीडीपी, रोजगार और विकास के आधार पर ही निर्धारित न करें बल्कि यह अत्यंत आवश्यक है कि समाज अपनी शक्तियों, नदियों और प्रकृति का स्वास्थ्य और सुरक्षा के मूल्यांकन के आधार पर अपनी प्रगति को निर्धारित करें.
अगर नारी व नदी दोनों अस्वस्थ है अर्थात हम मान सकते हैं कि हमारा पूरा समाज अस्वस्थ है. ऐसी परिस्थितियों में समाज में कितना भी परिवर्तन किया जाये परन्तु वह स्थायी, सतत व टिकाऊ नहीं होगा.
जब हम मान रहे है कि यह समय हमारा अमृत काल है और आगे आने वाले एक हजार वर्षों की हम नींव डाल रहे हैं, बीज रोपित कर रहे हैं उस में हमें नारी शक्ति का सम्मान, स्वाभिमान व सुरक्षा को लेकर चलना होगा तभी हम वास्तव में अमृत काल का वास्तविक स्वरुप का दर्शन कर पाएंगे.
जब हम एक विकासात्मक समाज की परिकल्पना करते हैं तो यह बहुत जरूरी है कि उस विकास में नारी शक्ति की उन्नति, प्रगति और प्रकृति का संरक्षण व संवर्द्धन अत्यंत आवश्यक है.

 



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